कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है
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बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
मरते हैं आरज़ू में मरने की
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
जान दी दी हुई उसी की थी
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
हम रश्क को अपने भी गवारा नहीं करते