काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे
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रफ़्तार-ए-उम्र क़त-ए-रह-ए-इज़्तिराब है
रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत
रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल