पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
उड़ने न पाए थे कि गिरफ़्तार हम हुए
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फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्ज़ा 'ग़ालिब'
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी