जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
मैं मो'तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था
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तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
है वस्ल हिज्र आलम-ए-तमकीन-ओ-ज़ब्त में
मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'