दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश है
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बोसा कैसा यही ग़नीमत है
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
हवस-ए-गुल के तसव्वुर में भी खटका न रहा
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
है ख़बर गर्म उन के आने की
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह