जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो
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गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
ना-कर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
'ग़ालिब' अपना ये अक़ीदा है ब-क़ौल-ए-'नासिख़'
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ
हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद'
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार