मैं ने चाहा था कि अंदोह-ए-वफ़ा से छूटूँ
वो सितमगर मिरे मरने पे भी राज़ी न हुआ
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पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर ना-हक़
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
विदाअ ओ वस्ल में हैं लज़्ज़तें जुदागाना
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं