क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मिरा भला न हुआ
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दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर वर्ना
न पूछ नुस्ख़ा-ए-मरहम जराहत-ए-दिल का
रुख़-ए-निगार से है सोज़-ए-जावेदानी-ए-शमा
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए