न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ'नी न सही
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बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआर का दफ़्तर खुला
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वह मेरे
बात पर वाँ ज़बान कटती है