पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे
कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते
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की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
दहर में नक़्श-ए-वफ़ा वजह-ए-तसल्ली न हुआ
खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
जम्अ करते हो क्यूँ रक़ीबों को
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती