खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला
शेरों के इंतिख़ाब ने रुस्वा किया मुझे
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आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
हूँ मैं भी तमाशाई-ए-नैरंग-ए-तमन्ना
न सुनो गर बुरा कहे कोई
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
पी जिस क़दर मिले शब-ए-महताब में शराब
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
शब कि बर्क़-ए-सोज़-ए-दिल से ज़हरा-ए-अब्र आब था
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में