की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशीमाँ होना
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सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
सीमाब-पुश्त गर्मी-ए-आईना दे है हम
मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं