की उस ने गर्म सीना-ए-अहल-ए-हवस में जा
आवे न क्यूँ पसंद कि ठंडा मकान है
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रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
ज़ोफ़ में तअना-ए-अग़्यार का शिकवा क्या है
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार