अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
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सितम-कश मस्लहत से हूँ कि ख़ूबाँ तुझ पे आशिक़ हैं
दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है
मैं भला कब था सुख़न-गोई पे माइल 'ग़ालिब'
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे