की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं
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आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
ये फ़ित्ना आदमी की ख़ाना-वीरानी को क्या कम है
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
सँभलने दे मुझे ऐ ना-उमीदी क्या क़यामत है
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया