किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो
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फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई उम्मीद बर नहीं आती
इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
बिसात-ए-इज्ज़ में था एक दिल यक क़तरा ख़ूँ वो भी