साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे
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मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
गर्म-ए-फ़रियाद रखा शक्ल-ए-निहाली ने मुझे
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बे-नियाज़ी हद से गुज़री बंदा-परवर कब तलक
न सुनो गर बुरा कहे कोई
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया