नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
तू वो नहीं कि तुझ को तमाशा करे कोई
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हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
हम पर जफ़ा से तर्क-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है