उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है 'ग़ालिब'
हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए
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ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
है ख़बर गर्म उन के आने की