मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
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बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
आबरू क्या ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
नज़र लगे न कहीं इन के दस्त-ओ-बाज़ू को
नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहीं
बर्शिकाल-ए-गिर्या-ए-आशिक़ है देखा चाहिए
हुई जिन से तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग