था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था
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रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया
रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा
गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन