गर तुझ को है यक़ीन-ए-इजाबत दुआ न माँग
यानी बग़ैर-ए-यक-दिल-ए-बे-मुद्दआ न माँग
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लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
यूसुफ़ उस को कहो और कुछ न कहे ख़ैर हुई
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी