फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िंदगी हमारी है
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न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
मुझ को दयार-ए-ग़ैर में मारा वतन से दूर
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का 'ग़ालिब' ख़ुदा गवाह
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
न सुनो गर बुरा कहे कोई
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में