बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
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हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बअ'द
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'
जराहत तोहफ़ा अल्मास अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'