आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी