बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
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दिल लगा कर लग गया उन को भी तन्हा बैठना
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
है काएनात को हरकत तेरे ज़ौक़ से
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो