तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार
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शिकवे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में