बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
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मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पए-हम है हम को
शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे