दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे
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सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
दोनों जहान दे के वो समझे ये ख़ुश रहा
ख़तर है रिश्ता-ए-उल्फ़त रग-ए-गर्दन न हो जावे
नक़्श-ए-नाज़-ए-बुत-ए-तन्नाज़ ब-आग़ोश-ए-रक़ीब
शुमार-ए-सुब्हा मर्ग़ूब-ए-बुत-ए-मुश्किल-पसंद आया
जज़्बा-ए-बे-इख़्तियार-ए-शौक़ देखा चाहिए
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीम-तन के पाँव
दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
मय वो क्यूँ बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में या रब
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी