तू ने क़सम मय-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
तेरी क़सम का कुछ ए'तिबार नहीं है
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ताब लाए ही बनेगी 'ग़ालिब'
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
अर्ज़-ए-नाज़-ए-शोख़ी-ए-दंदाँ बराए-ख़ंदा है
हुजूम-ए-नाला हैरत आजिज़-ए-अर्ज़-ए-यक-अफ़्ग़ँ है
फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
नक़्श फ़रियादी है किस की शोख़ी-ए-तहरीर का