बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
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पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर जवाँ था अभी आरिफ़
यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं
गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के