गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए
जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआर में आवे
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कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
ग़म खाने में बूदा दिल-ए-नाकाम बहुत है
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो