तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो
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ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कोई उम्मीद बर नहीं आती
पए-नज़्र-ए-करम तोहफ़ा है शर्म-ए-ना-रसाई का
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या रब
शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
वाइज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको