'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
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मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
जुनूँ की दस्त-गीरी किस से हो गर हो न उर्यानी
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
है ख़बर गर्म उन के आने की
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद