मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
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ग़ाफ़िल ब-वहम-ए-नाज़ ख़ुद-आरा है वर्ना याँ
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें
आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
निस्यह-ओ-नक़्द-ए-दो-आलम की हक़ीक़त मालूम
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा