क़त्अ कीजे न तअ'ल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
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सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
बहुत सही ग़म-ए-गीती शराब कम क्या है
'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद
हो गई है ग़ैर की शीरीं-बयानी कारगर