इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर
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गुलशन को तिरी सोहबत अज़-बस-कि ख़ुश आई है
देख कर दर-पर्दा गर्म-ए-दामन-अफ़्शानी मुझे
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ