ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वादे वफ़ा किए
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जो न नक़्द-ए-दाग़-ए-दिल की करे शोला पासबानी
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं 'ग़ालिब'
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
बस-कि हूँ 'ग़ालिब' असीरी में भी आतिश ज़ेर-ए-पा
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए