हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
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जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
ग़म नहीं होता है आज़ादों को बेश अज़-यक-नफ़स
फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद'
रश्क कहता है कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
है सब्ज़ा-ज़ार हर दर-ओ-दीवार-ए-ग़म-कदा
दिल में ज़ौक़-ए-वस्ल ओ याद-ए-यार तक बाक़ी नहीं
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का