रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
Anwar Masood
Allama Iqbal
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हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
जान तुम पर निसार करता हूँ
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन