जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
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हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
हर-चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई