बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
उल्टे फिर आए दर-ए-काबा अगर वा न हुआ
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शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला
तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
फ़ाएदा क्या सोच आख़िर तू भी दाना है 'असद'
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को