करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
Anwar Masood
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Gulzar
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न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है
जुनूँ तोहमत-कश-ए-तस्कीं न हो गर शादमानी की
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
ज़ोफ़ से गिर्या मुबद्दल ब-दम-ए-सर्द हुआ
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
गर किया नासेह ने हम को क़ैद अच्छा यूँ सही
मैं ने जुनूँ से की जो 'असद' इल्तिमास-ए-रंग
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं