रहमत अगर क़ुबूल करे क्या बईद है
शर्मिंदगी से उज़्र न करना गुनाह का
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फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
खुलता किसी पे क्यूँ मिरे दिल का मोआमला
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
सफ़ा-ए-हैरत-ए-आईना है सामान-ए-ज़ंग आख़िर
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो