बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
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शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है
साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर
एक जा हर्फ़-ए-वफ़ा लिखा था सो भी मिट गया
बैठा है जो कि साया-ए-दीवार-ए-यार में
जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं