मैं ना-मुराद दिल की तसल्ली को क्या करूँ
माना कि तेरे रुख़ से निगह कामयाब है
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नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
'ग़ालिब' छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
हरीफ़-ए-मतलब-ए-मुश्किल नहीं फ़ुसून-ए-नियाज़
वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
हुस्न-ए-बे-परवा ख़रीदार-ए-माता-ए-जल्वा है
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना
ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है