ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
हक़ मग़फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था
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जब ब-तक़रीब-ए-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़-ए-दरिया
अज़-मेहर ता-ब-ज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
जुज़ क़ैस और कोई न आया ब-रू-ए-कार
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-उयूब-ए-बरहनगी
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ