रहे न जान तो क़ातिल को ख़ूँ-बहा दीजे
कटे ज़बान तो ख़ंजर को मरहबा कहिए
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आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
फ़ारिग़ मुझे न जान कि मानिंद-ए-सुब्ह-ओ-मेहर
क्या ख़ूब तुम ने ग़ैर को बोसा नहीं दिया
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
इश्क़ तासीर से नौमीद नहीं
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
गिला है शौक़ को दिल में भी तंगी-ए-जा का
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो