आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
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अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
लिखते रहे जुनूँ की हिकायात-ए-ख़ूँ-चकाँ
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना