कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
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दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी
मिरी हस्ती फ़ज़ा-ए-हैरत आबाद-ए-तमन्ना है
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है
घर हमारा जो न रोते भी तो वीराँ होता
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाए दिल
कोई वीरानी सी वीरानी है
हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
तस्कीं को हम न रोएँ जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले